नमस्कार आपका स्वागत है, दोस्तों एक समय की बात है भगवान विष्णु और देवी लक्ष्मी क्षीर सागर में शेष नाग की शैया पर विश्राम कर रहे होते हैं तब देवी लक्ष्मी ने भगवान विष्णु से पूछा हे प्रभु ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा का क्या महत्व है !
और इस दिन वट वृक्ष की पूजा क्यों की जाती है? कृपया मुझे इस पूर्णिमा का महात्म सुनाइए!
तब भगवान विष्णु कहते हैं हे देवी आज आपने उत्तम व्रत के विषय में प्रश्न किया है! ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को वट सावित्री पूर्णिमा कहा जाता है!
यह व्रत महिलाओं को सौभाग्य प्रदान करने वाला है! इस व्रत को करने वाली स्त्री सदा सुहागिन रहती है! इस विषय में सती सावित्री की प्राचीन कथा है, जो आज मैं तुम्हें सुनाने जा रहा हूं!
जो भी पतिव्रता नारी इस कथा का श्रवण करती है उसके पति की कभी अकाल मृत्यु नहीं होती है!
वह सदा सुहागिन और सौभाग्यशाली रहती है! उसे उत्तम संतान सुख प्राप्त होता है!
इसीलिए इस कथा को पूरा अवश्य सुनना चाहिए, आधा अधूरा नहीं सुनना चाहिए ,
देवी लक्ष्मी कहती है हे प्रभु कृपया आप मुझे वह कथा सुनाइए आपके मुख से इस कथा को सुनना मेरा सौभाग्य है! मैं इस कथा को पूरा जरूर सुनूंगी! भगवान विष्णु कहते हैं हे देवी ठीक है, अब तुम इस कथा को ध्यान से सुनो!
पूर्व काल की बात है मद्र देश में एक धर्मात्मा राजा राज्य करते थे! वे बड़े ही पुण्यवान सत्यवादी और जितेंद्रीय थे उनका नाम अश्वपति था! उनके नगर की प्रजा उनसे अत्यंत संतुष्ट और सुखी थी !
महाराज अश्वपति न्याय प्रिय और प्रजा की रक्षा करने में तत्पर थे! वे सदा ही प्राणियों का हित साधने में लगे रहते थे!महाराज अश्वपति के पास सब प्रकार का सुख ऐश्वर्य था!किंतु उनके जीवन में एक ही दुख था,
महाराज की कोई संतान नहीं थी, इसीलिए उन्होंने संतान प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या आरंभ की, कठोर नियमों का पालन करते हुए उन्होंने 18 वर्षों तक सावित्री देवी की आराधना की !
18 वर्षों की तपस्या पूर्ण होने के पश्चात सावित्री देवी ने महाराज को साक्षात दर्शन दिए , और उन्हें वरदान देते हुए कहा हे राजन तुम्हारी भक्ति और तपस्या से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं !
मेरी ही कृपा से तुम्हें शीघ्र ही एक अत्यंत सुंदर और तेजस्विनी कन्या होगी! इस प्रकार से वरदान देकर देवी सावित्री उस स्थान से अंतर्ध्यान हो गई!
देवी सावित्री से वरदान प्राप्त करके महाराज अश्वपति अपने राज्य में लौटकर धर्म पूर्वक प्रजा का पालन करने लगे!
महाराज की बड़ी महारानी मालव नरेश की कन्या थी! फिर कुछ ही दिनों के बाद महारानी ने गर्भ धारण किया,और नौ महीनों बाद उनके गर्भ से कमल के समान नेत्र वाली एक अत्यंत सुंदर कन्या ने जन्म लिया!
कन्या का का जन्म होते ही चारों ओर प्रसन्नता छा गई, महाराज ने प्रसन्न होकर उस कन्या के जात कर्म आदि संस्कार किए! देवी सावित्री ने वरदान के रूप में महाराज अश्वपति को कन्या प्रदान की थी!इसी कारण से उस कन्या का नाम सावित्री रखा गया!
महाराज की वह कन्या देवी लक्ष्मी के समान दिनोंदिन बढ़ने लगी! धीरे-धीरे उसने युवा अवस्था में प्रवेश किया ! राजा की वह कन्या सोने की मूर्ति के समान तेज प्रतित हो रही थी! उसके सामने जो भी जाता उसके तेज से प्रभावित हो जाता था !
उसे देखकर लोग कहने लगे कि यह कोई मानव नहीं देवकन्या है! उस सावित्री के अद्भुत रूप और सौंदर्य को देखकर कोई भी राजकुमार उसका वर्ण ना कर सका!
जिससे महाराज को अपनी कन्या के विवाह की चिंता सताने लगी,फिर एक दिन महाराज अपनी पुत्री सावित्री से बोले हे पुत्री अब तुम विवाह के योग्य हो गई हो!इसीलिए तुम ही अपने लिए तुम्हारी इच्छा और कामना के अनुसार वर की खोज करो!
इतना कहकर महाराज ने अपने मंत्रियों को सावित्री के साथ जाने के लिए कहा! पिता की आज्ञा मानकर सावित्री अपने माता-पिता को नमस्कार करके सोने से बने रथ में बैठकर मंत्रियों के साथ अपने लिए वर को खोजने के लिए निकल पड़ी !
वह अनेकों तपोवन से गुजरती तो उस स्थान पर मौजूद ऋषि मुनि तथा ब्राह्मणों को दान दक्षिणा देकर आगे बढ़ती थी इस प्रकार से यात्रा करते हुए वह भिन्न-भिन्न स्थानों पर गई फिर एक दिन महाराज अश्वपति अपनी राजसभा में बैठे थे तभी नारद जी उस स्थान पर पधार ते हैं ,
तो महाराज उनका स्वागत करते हैं! और उनके साथ चर्चा करने लगते हैं! उसी समय सावित्री अपनी यात्रा से लौटकर राजमहल में आती है!जब सावित्री ने नारद जी को अपने पिता के साथ चर्चा करते हुए देखा तो उसने उन दोनों को ही नमस्कार किया!
सावित्री को देख कर नारद जी ने उसे आशीर्वाद दिया, और महाराज से कहने लगे हे राजन आपकी यह कन्या कहां गई थी!और कहां से आई है ,अब तो यह विवाह के योग्य हो गई है, आपने अभी तक इसका विवाह क्यों नहीं किया !
तब महाराज अश्वपति बोले हे देवर्षि मैंने इसी कार्य के लिए अपनी पुत्री को भेजा था, मेरी पुत्री सावित्री अपने लिए वर खोजने के लिए गई थी! और अभी-अभी लौटी है ,अब इसी के मुख से सुनते हैं कि इसने किस भाग्यवान पुरुष को अपना पति चुना है!
इतना कहकर महाराज ने सावित्री से पूछा हे पुत्री तुम अपना वृतांत सुनाओ तुम कहां पर गई थी ,और तुमने अपने लिए किसे पति के रूप में चुना है! तब सावित्री ने कहा हे पिता श्री शाल्व देश में एक धर्मात्मा राजा थे उनका नाम दमत सेन है, वे पहले राज्य करते थे किंतु उनकी आंखें अंधी हो गई उस समय उनका पुत्र बहुत छोटा था!
इसीलिए उनके शत्रु राजा ने उनके राज्य पर आक्रमण करके उनका सबकुछ छीन लिया ,तब वे अपनी पत्नी और पुत्र को लेकर वन में चले गए! और तपस्या करने लगे,उनके पुत्र का नाम सत्यवान है! जो उन्हीं के साथ तपस्या करते थे,वे ही मेरे लिए सर्वथा योग्य है!
इसीलिए मैंने सत्यवान को ही मेरे पति के रूप में चुना है!सावित्री की बात सुनकर नारद जी बोले हे राजन यह तो बड़े दुख की बात हो गई! सावित्री ने बहुत बड़ी भूल की है ,बेचारी सत्यवान का रहस्य नहीं जानती थी! इसीलिए उसने उत्तम गुणों से युक्त सत्यवान को अपने पति के रूप में चुना है !
तब महाराज अश्वपति ने चिंतित होकर नारद जी से पूछा हे देवर्षि क्या मेरी पुत्री ने चुना हुआ पुरुष उत्तम नहीं है! क्या वह शूरवीर बुद्धिमान तथा क्षमावाणी, नारद जी कहते हैं ,हे राजन सत्यवान बड़ा ही वीर सूर्य के समान तेजस्वी, बुद्धिमान ,पृथ्वी की भांति क्षमाशील ,दानशूर सत्यवादी ययाति के समान उदार और अश्विनी कुमारों के समान रूपवान है !
वह जितेंद्रिय पराक्रमी ईर्ष्या रहित मिलनसार और विनय है ,फिर राजा ने चकित होकर पूछा हे मुनिवर आपने तो सत्यवान को समस्त गुणों का भंडार बता दिया है,लेकिन फिर आपने ऐसा क्यों कहा ,कि सावित्री ने बड़ी भूल की है !
सत्यवान में कोई दोष है ,क्या कृपया मुझे बताइए तब देवर्षि बोले हे राजन समस्त गुणों से युक्त सत्यवान में केवल एक ही दोष है! और वह दोष भी साधारण नहीं है,उस दोष को कुछ भी करके मिटाया नहीं जा सकता! साक्षात ब्रह्मदेव भी उस दोष को मिटा नहीं सकते !
आज से ठीक एक वर्ष के बाद सत्यवान की आयु समाप्त हो जाएगी!और उसकी मृत्यु हो जाएगी! नारद जी की ऐसी बात सुनकर महाराज अश्वपति बहुत दुखी हो गए! और फिर वे अपनी पुत्री सावित्री से बोले हे पुत्री तुम अब फिर से यात्रा करो और किसी अन्य योग्य पुरुष को पति के रूप में स्वीकार करो!
सत्यवान की तो एक वर्ष बाद मृत्यु होने वाली है, तब सावित्री ने दृढ़ता के साथ उत्तर दिया हे पिताश्री कन्या एक बार ही किसी को दी जाती है!जो मनुष्य एक बार किसी को कन्या देकर दूसरे को देने का विचार करता है,उसे महापाप लगता है!
सत्यवान दीर्घायु हो अथवा अल्पायु, गुणवान हो अथवा निर्गुण हो, मैंने उन्हें अपना पति स्वीकार कर लिया है! अब मैं किसी दूसरे पुरुष के विषय में विचार भी नहीं कर सकती! पहले मन से निश्चय करके फिर मुख से बोला जाता है !
और जो मुख से बोला जाता है उसे कर्म के द्वारा पूर्ण किया जाता है!मैंने सत्यवान को मन से पति माना है! और मुख से भी बोल दिया है! अब मैं केवल सत्यवान के साथ ही विवाह करूंगी!सावित्री के ऐसे शुद्ध हृदय और पतिव्रता धर्म का नारद जी के मन पर बहुत अच्छा प्रभाव पड़ा!
उन्होंने महाराज अश्वपति को समझाते हुए कहा हे राजन सावित्री की बुद्धि स्थिर है, इसने धर्म का आश्रय लिया है,इसने जो निश्चय किया है उससे इसे दूर नहीं किए जा सकता ,
इसीलिए आप अब व्यर्थ की चिंता ना करते हुए सावित्री ने जिसे पति के रूप में चुना है! उसी के साथ इसका विवाह करा दीजिए !फिर राजा ने कहा हे देवर्षि आप ही मेरे गुरु हैं,आपने जो कुछ भी कहा है वह ठीक है,
मैं आपकी आज्ञा का पालन करते हुए सावित्री का विवाह सत्यवान के साथ ही करूंगा!
नारद जी ने कहा हे राजन सावित्री का विवाह निर्विघ्न संपन्न हो, तथा आप सभी का कल्याण हो !ऐसा मैं आशीर्वाद देता हूं ,इतना कहकर नारद जी उस स्थान से अंतर्ध्यान हो गए !
फिर राजा ने ब्राह्मणों को बुलाकर कन्या के विवाह के लिए शुभ मुहूर्त निकलवाया! फिर वे राजा दमत सेन के आश्रम पर पहुंच गए! और उन्होंने उन्हें नमस्कार किया!और उन्हें अपना परिचय दिया,महाराज दमत सेन ने महाराज अश्वपति का स्वागत किया!और उन्हें सम्मानित किया!
तट पश्चात राजा अश्वपति ने कहा हे राजन मेरी कन्या सावित्री यहां पर उपस्थित है, आप मेरी पुत्री को अपनी पुत्र वधु के रूप में ग्रहण करें! तब राजा दमत सेन ने अपनी वर्तमान अवस्था को ध्यान में रखकर इस रिश्ते को लेकर असमर्थता प्रकट की! और कहा हे राजन अब मेरे पास ना राज महल है और ना मैं राजा हूं मैं इस कुटिया में निवास करता हूं!
क्या आपकी कन्या हमारी इस कुटिया में रह पाएगी! तब महाराज अश्वपति ने उन्हें अनुरोध किया और अपनी पुत्री का विवाह उनके पुत्र के साथ करने की विनती की!
महाराज दमत सेन ने भी प्रेम पूर्वक उस विवाह प्रस्ताव का स्वीकार किया! तदनंतर उसी आश्रम में सभी ने मिलकर सावित्री और सत्यवान का विवाह संपन्न किया!
महाराज अश्वपति ने कन्यादान के साथ-साथ दहेज में वस्त्र आभूषण उन्हें प्रदान किए! और अपने नगर को चले गए!सत्यवान को सर्वगुण संपन्न सुंदर पत्नी मिली और सावित्री ने भी मनोवांछित पति प्राप्त किया!
पिता के चले जाने के बाद सावित्री ने अपने सारे आभूषण उतार कर रख दिए, और साधारण वस्त्र धारण कर लिए उसने सेवा भाव विनय सद्गुण संयम तथा सभी की इच्छा के अनुसार कार्य करके अपने ससुराल वालों को प्रसन्न कर लिया !
वह दिन रात अपने सास ससुर की सेवा करने लगी! इससे वह सास को भी बहुत प्रिय हो गई!वह अपने पति और ससुर को देवता के समान मानकर उनकी पूजा और सेवा करती थी!
और मौन रहती थी, इससे उसके ससुर भी उससे बहुत संतुष्ट रहते थे इसी प्रकार से वह पति से प्रिय वचन बोलती ,कुशलता के साथ उनकी सेवा करती!शांत भाव से रहती और एकांत में अपनी सभी सेवाओं से उन्हें सुखी रखती थी !
इन्हीं सभी गुणों के कारण सत्यवान भी सावित्री से बहुत प्रेम करता था! इस प्रकार से राजा की पुत्री होकर भी आश्रम में रहकर सावित्री ने सभी की बड़ी सेवा की ,किंतु नारद जी द्वारा कही गई बात को सावित्री भूली नहीं थी! वह दिन रात उसी बात की चिंता में रहती थी उसे उसके पति की मृत्यु की बात पता थी,लेकिन वह मौन रही, दिन बीतते गए और फिर अंत में वह समय आ पहुंचा,
जब सत्यवान की मृत्यु होने वाली थी, सावित्री एक-एक दिन गिनती रहती थी! जब उसने देखा कि आज से चौथे दिन पति की मृत्यु होने वाली है! तो उसने तीन रात का निराहार व्रत धारण किया,और रात दिन स्थिर होकर बैठी रही!जब सत्यवान के जीवन का एक ही दिन शेष रह गया !
दूसरे दिन उसकी मृत्यु होने वाली थी तो उस दिन रात में सावित्री को बड़ा दुख हुआ, उसने जागते जागते ही सारी रात बीता दी!सुबह होने पर उसने अपना घर का सारा काम कर लिया! और अपने सास ससुर को प्रणाम किया!तथा आश्रम में निवास करने वाले सभी से सौभाग्यवती होने का आशीरवाद ग्रहण किया!
इतने में ही सत्यवान कुल्हाड़ी लेकर वन से लकड़ी लाने के लिए जाने को तैयार हुआ! यह देख सावित्री ने अपने पति से कहा,हे नाथ आज आप अकेले ना जाए मैं भी आपके साथ चलूंगी!
तब सत्यवान बोला हे प्रिय वन का रास्ता बड़ा कठिन है,तुम इससे पहले वन में कभी नहीं गई, व्रत और उपवास ने तुम्हें दुर्बल बना दिया है ,और तुम पैदल नहीं चल पाओगी,इसीलिए तुम यहीं पर रुको, तब सावित्री ने कहा हे नाथ उपवास से मुझे कोई कष्ट और थकावट नहीं है,
मैं आपके साथ चलने में उत्साहित हूं, इसीलिए मुझे रोकिए मत मैं आज आपके साथ ही चलूंगी,सत्यवान बोला हे प्रिय ठीक है , यदि तुमने चलने का निश्चय किया है तो मैं मना नहीं करूंगा, लेकिन तुम मां और पिताजी से आज्ञा ले लो यह सुनकर सावित्री ने अपने सास ससुर से आज्ञा लेते हुए कहा,
आज मेरे स्वामी वन में लकड़ी और फल लाने जा रहे हैं ल, यदि सास जी और ससुर जी आज्ञा दे तो आज मैं उनके साथ जाना चाहती हूं, तब सावित्री के ससुर ने कहा हे सावित्री जब से तुम मेरे घर में बहू बनकर आई हो तुमने हमारी बड़ी सेवा की है,और तुमने हमसे कभी भी कुछ नहीं मांगा है,
इसीलिए आज तुम्हारी इच्छा अवश्य पूर्ण होनी चाहिए! आज पहली बार तुमने कुछ इच्छा प्रकट की है! इसीलिए बेटी अब तुम अपने पति के साथ जाओ! अपने सास ससुर की आज्ञा पाकर सावित्री बड़ी प्रसन्न हुई, और अपने पति सत्यवान के साथ वन की ओर चलने लगी!
उसके मुख पर प्रसन्नता थी,किंतु मन में दुख की आग जल रही थी!दोनों ही वन में चले गए, फिर सत्यवान पेड़ से लकड़ियां काटने लगा, और सावित्री उसे एकत्रित करने लगी, फिर कुछ समय बाद लकड़ी काटते काटते परिश्रम के कारण सत्यवान को पसीना आ गया, और उसके सिर में बड़े जोर से दर्द उठा लकड़ी काटना छोड़कर वह सावित्री के पास गया और बोला हे प्रिय आज परिश्रम के कारण मेरे सिर में दर्द होने लगा है!
सारा शरीर टूट रहा है, कलेजे में बड़ी पीड़ा हो रही है, इस समय पर मुझे बड़ा अस्वस्थ महसूस हो रहा है! ऐसा जान पड़ता है कोई मेरे मस्तक पर प्रहार कर रहा है!अब मुझ में खड़े रहने की भी शक्ति नहीं है! हे प्रिय अब मैं सोना चाहता हूं! फिर सावित्री ने पति के पास जाकर उसे संभाला और उसका मस्तक गोद में लेकर जमीन पर बैठ गई!
सावित्री समझ गई कि अब सत्यवान की मृत्यु का समय निकट आ चुका है! इतने में ही उसे एक पुरुष दिखाई पड़ा जो भैंस पर बैठा हुआ था! उसके माथे पर काले-काले सिंग थे! उसका शरीर सांवला था! उसके नेत्र लाल लाल दिखाई दे रहे थे! उसके हाथ में पाश था!
देखने में वह बड़ा भयंकर था, वह पुरुष सत्यवान की ओर देख रहा था!उस अद्भुत पुरुष को देखकर सावित्री खड़ी हो गई! और प्रणाम करके बोली हे देव आप कोई देवता जान पड़ते हैं! क्योंकि आपका शरीर मनुष्य का नहीं है, यदि आपकी इच्छा हो तो बताइए, आप कौन है और क्या करना चाहते हैं!
इस स्थान पर क्यों आए हैं, वह दिव्य पुरुष कहने लगा हे सावित्री तुम बड़ी ही पतिव्रता और तपस्विनी हो, इसीलिए तुम मुझे देख पा रही हो,और मैं तुम्हारे साथ वार्तालाप कर रहा हूं,तुझे मालूम होना चाहिए कि मैं यमराज हूं,
और आज तेरे पति की आयु समाप्त हो चुकी है, अतः मैं इसे लेने के लिए आया हूं, फिर सावित्री बोली हे हे भगवन मैंने तो सुना है कि जीवों को लेने के लिए आपके दूत आते हैं, तो फिर आज आप स्वयं क्यों पधारे हैं, यमराज बोले हे सावित्री सत्यवान परम धर्मात्मा है,यह दूतों के द्वारा ले जाने योग्य नहीं है, इसीलिए मैं स्वयं आया हूं,
इतना कहकर यमराज ने सत्यवान के शरीर से अंगूठे के बराबर आकार वाला जीव बाहर निकाला, और उसे लेकर दक्षिण दिशा की ओर जाने लगे, यह देखकर सावित्री भी यमराज के पीछे पीछे जाने लगी, सावित्री को पीछे पीछे आता हुआ देखकर यमराज बोले, हे सावित्री यह तुम क्या कर रही हो,
तुम अब यहां से लौट जाओ और अपने पति का दाह संस्कार करो, आज तुम पति के सेवा के कार्य से मुक्त हो चुकी हो, इसीलिए अब तुम लौट जाओ, सावित्री बोली हे भगवन जहां मेरे पतिदेव जाएंगे,वहां मुझे भी जाना है,
आपकी दया से मेरी गति कुंठित नहीं हो सकती, नारी के लिए पति का अनुसरण ही सनातन धर्म है, उसे पति का साथ कभी नहीं छोड़ना चाहिए, यमराज ने कहा हे सावित्री तेरी धर्मानुसार ने कहा हे देव यदि आप मुझे वरदान देना चाहते हैं,तो मेरे ससुर की आंखें अंधी हो गई है, उन्हें फिर से दृष्टि प्रदान कीजिए,
और वे बलवान तथा तेजस्वी हो जाए, ऐसा वर दीजिए!
यमराज ने कहा ठीक है ऐसा ही होगा अब तुम यहां से लौट जाओ, नहीं तो थक जाओगी, सावित्री ने कहा हे धर्मराज मेरे पति के समीप रहते हुए मुझे किसी प्रकार की थकावट नहीं हो सकती, जहां मेरे प्राणनाथ रहेंगे वहीं पर मेरा आश्रय होगा, इसीलिए मैं इनके साथ ही चलूंगी,मेरे पति के साथ चलने का दूसरा लाभ है, सत्संग मेरे पति सत्पुरुष है,
और सत्पुरुष का संग एक बार भी मिल जाए तो अभीष्ट की पूर्ति करने वाला होता है, यदि उनसे प्रेम हो जाए तो कहना ही क्या, संतों के साथ समागम कभी निष्फल नहीं होता,इसीलिए सदा सत्पुरुष के साथ ही चलना चाहिए,
फिर यमराज बोले हे सावित्री तुमने जो बात कही है, वह सबके लिए हितकर है, तथा मुझे भी तुम्हारी बात अत्यंत प्रिय लगी, इसीलिए मैं तुम पर प्रसन्न हूं, अब तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर दूसरा कोई वर मांग लो,सावित्री ने कहा हे धर्मराज यदि आप मुझ पर प्रसन्न है, तो मेरे ससुर का जो खोया हुआ राज्य है वह उन्हें प्राप्त हो जाए,तथा वे कभी धर्म का परित्याग ना करें,
फिर यमराज ने कहा ठीक है सावित्री जैसी तुम्हारी इच्छा वैसा ही होगा, अब तुम लौट जाओ किंतु फिर भी सावित्री यमराज के पीछे पीछे ही चलती रही, चलते चलते उसने यमराज से कहा हे देव आप सारी प्रजा का नियमन करने वाले हैं, इसीलिए आपको यम कहा जाता है,
मैंने सुना है कि प्राणी को मन वचन और क्रिया द्वारा कि किसी भी दूसरे प्राणी के साथ द्रोह नहीं करना चाहिए, सभी पर समान रूप से दया करनी चाहिए! दान करना श्रेष्ठ पुरुषों का धर्म है,सनातन धर्म है ,
यूं तो संसार के सभी लोग अपने मित्र के साथ अच्छा व्यवहार करते हैं, किंतु श्रेष्ठ लोग तो शत्रु पर भी दया करते हैं, सावित्री की बात सुनकर यमराज बोले हे, कल्याणी जैसे प्यासे को पानी मिलने से तृप्ति होती है,
उसी प्रकार से तुम्हारी बाते धर्मानुसार है,इसीलिए अब तुम सत्यवान के जीवन को छोड़कर कोई तीसरा वरदान मांग लो, फिर सावित्री ने कहा हे धर्मराज मेरे पिता अश्वपति के कोई पुत्र नहीं है, उन्हें 100 पुत्र देने की कृपा करें,यमराज ने कहा ठीक है, सावित्री ऐसा ही होगा, अब तुम बहुत दूर आ गई हो,
अब यहां से लौट जाओ सावित्री ने कहा, हे धर्मराज मैं पति के समीप हूं, इसीलिए दूरी का मुझे अनुभव नहीं होता, पति से दूर रहना नारी के लिए दुख की बात है,
आप मेरी कुछ बातें और सुनिए हे धर्मराज विवस्वान के अर्थात सूर्यदेव के पुत्र होने के कारण आपको वैवस्वत कहते हैं, आप शत्रु मित्र आदि किसी के साथ भेदभाव नहीं करते,सभी का समान रूप से न्याय करते हैं, इसी से सब मनुष्य धर्म का आचरण करते हैं,
और आपको धर्मराज कहा जाता है, अच्छे मनुष्यों का संतों पर जैसा विश्वास होता है, वैसा खुद पर भी नहीं होता, विश्वास ही सौहार्द का कारण है, अच्छे लोगों में सौहार्द का भाव होता है,इसीलिए सभी उन पर विश्वास करते हैं, सावित्री की बात सुनकर यमराज बोले हे सावित्री तूने जो बातें कही हैं,
वैसी मैंने किसी और के मुख से नहीं सुनी, इसीलिए अब मेरी प्रसन्नता और भी बढ़ गई है, अब तू सत्यवान के जीवन के अलावा कोई चौथा वर मांग ले, सावित्री ने कहा हे भगवन मुझे कुल की वृद्धि के लिए 100 पुत्र चाहिए, इसीलिए मुझे पुत्र प्राप्ति का वरदान दीजिए,जो बलवान और पराक्रमी हो, यमराज बोले हे कल्याणी ठीक है तुम्हारी यह इच्छा भी पूर्ण हो जाएगी,
अच्छा अब तू बहुत दूर तक आई है, अब यहां से तू लौट जा, सावित्री ने अपनी धार्मिक चर्चा बंद नहीं की और वह कहती गई हे, धर्मराज सत्पुरुष का मन सदा धर्म में लगा रहता है, सत्पुरुष के साथ जो समागम होता है, वह कभी व्यर्थ नहीं जाता,
संतों से कभी किसी को भय नहीं होता, सत्पुरुष सत्य के बल से सूर्य को भी अपने समीप बुला लेते हैं ,वे ही अपने प्रभाव से पृथ्वी को धारण करते हैं, भूत और भविष्य के आधार भी वे ही है,
उनके बीच में रहकर श्रेष्ठ पुरुषों को कभी दुख नहीं होता, दूसरों की भलाई ही सनातन धर्म है, ऐसा मानकर सत्पुरुष सदा ही परोपकार में लगे रहते हैं, सावित्री की यह बातें सुनकर यमराज दया से द्रवित हो उठे,और बोले हे पतिव्रता तुम्हारी यह बातें धर्मानुसार गंभीर अर्थ से युक्त है, मेरे मन को लुभाने वाली है, तू जो जो बातें कह रही है तेरे प्रति मेरी श्रद्धा बढ़ती जा रही है,
इसीलिए तू मुझसे कोई अनुपम वर मांग ले, सावित्री ने कहा हे भगवन अब तो आप सत्यवान के जीवन का ही वरदान दीजिए, इससे आपके ही सत्य और धर्म की रक्षा होगी, आप मुझे 100 पुत्र होने का वर दे चुके हैं, और मेरे पति के बिना मैं पुत्र कैसे प्राप्त कर सकती हूं,
मेरे पति के बिना तो मैं सुख स्वर्ग लक्ष्मी तथा जीवन की भी इच्छा नहीं रखती, धर्मराज वचनबद्ध हो चुके थे फिर उन्होंने सावित्री की ओर प्रेम से देखा और कहा हे सावित्री तुम धन्य हो, तुम एक महान पतिव्रता नारी हो,आज से संसार में तुम्हें पूजा जाएगा, तुम्हारे इस पतिव्रता धर्म की चर्चा तीनों लोकों में होगी, इतना कहकर यमराज ने सत्यवान के प्राणों को मुक्त कर दिया, और उसे 400 वर्ष की आयु प्रदान की,
फिर पतिव्रता सावित्री अपने पति के प्राण लेकर लौट आई,और उसने अपने पति को जीवित कर दिया, और प्रसन्नता पूर्वक अपने घर को चली गई, भगवान विष्णु कहते हैं हे देवी इस प्रकार से देवी सावित्री ने अपने सतीत्व की शक्ति से अपने पति के प्राण भी यमराज से छोड़ा कर लाए,
स्त्री के पतिव्रता धर्म में बहुत शक्ति होती है, तभी से उस सती सावित्री की पूजा की जाती है, तो दोस्तों उम्मीद है आपको यह कथा अच्छी लगी होगी जानकारी अच्छी लगी तो वीडियो को लाइक जरूर करें और कमेंट में जय श्री हरि विष्णु अवश्य लिखें